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मैने कब चाहा था / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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मैने कब चाहा था
मैने कब
चाहा था तुमको
बरबस अपने गले लगाऊँ,
पर न नेह से जो विचलित हो
वह सन्यास कहाँ से लाऊँ
एक धर्म दीवार
खड़ी थी
बीच तुम्हारे मेरे फिर भी
रोके रूका न
लाँघ गया मन
पिय पिय कह पायल जब थिरकी
अनहक जाग उठी यह ख्वाहिश
तुम रूठो मैं तुम्हें मनाऊँ
सांसो में
बेला की खुशबू
मन में चन्दन गंध नेह की
साथ लिए
जब तुम ढिग आये
बोल उठी यह साध देह की
जब तुम हँसो हँसू तब मैं भी
जब तुम गाओ तब मैं गाऊँ
डोला तो
पहले भी था मन
ऐसा पर न कभी डोला था
यूं सांसो में
सांस किसी ने
पहले कभी नहीं घोला था,
तुलसी बनो गेह की तो मैं
माथे का चंदन बन जाऊँ