भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोंगरे की खुशबू में लिपटी है पिता की देह / कर्मानंद आर्य
Kavita Kosh से
मोंगरे की खुशबू में लिपटी है पिता की देह
देह से उठ रहा है लावा
आग फैल रही है चारो तरफ
जल रहे हैं लोग
धधक रहे हैं अधूरे ख्वाब
आसमान का कालापन आँख के नीचे उतर रहा है
धीरे धीरे
वे जो उनकी मुस्कानों के आदी थे
खो गए कहीं
वे जो कहते थे -सुन्दर है तुम्हारी आवाज
खो गए कहीं
वे जो मर जाया करती थी अनायास
वे माएं जाने कहाँ चली गईं
खुशबू उठ रही है मोगरे की
पिता उठ रहे हैं
ऊपर ऊपर ऊपर