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मोक्ष और एक ग़ज़ल / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'

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मेरे पास अदृश्य हवा को रोकने का कोई तरीका नहीं था.
तो मैंने उसे कहा "आओ, हवाओं! देखो मेरा पालना.
और मेरे मुंडन के समय उतरे बाल वहीं एक कोने में रखे हैं.
पान के पत्ते में बंधे.

मैं अपना संवाद जारी रख पाती
इससे पहले ही
हवा ने एक तेज़ झौंके से मेरी डरी हुई आत्मा ले ली.

मेरे होंठों पर
आखिरी संवाद की हल्की लहर अभी बनी ही थी.
कि मोक्ष की निराशा ने
मेरी काया के तपते हुए वक्ष हथेलियों में थाम लिए
मनगढ़ंत नृत्य की किसी पहेली में उलझे हुए
हवा के सुडौल हाथों में मेरे फ़ाख्ता से वक्ष !

"अब तुम्हें रोना होगा !"
हवा ने मुझसे कहा.
और मेरे मुलायम बाल काट दिए.
मैं हँस दी !

मैंने सोचा आग से शायद बच जाऊं मैं.
लेकिन उसमें भी तो तुम्हारी स्मृति थी
और मेरी हँसी भी.
उस आग की लपटों में
कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी?

मैं बेहिसाब और अर्थहीन कल्पनाओं के मोह में अपना ही तिरस्कार करती गई.
क्योंकि जानती थी
कि सच्ची कला एक मृत्यु है.
प्रेम की उस कुँवारी आभा की तरह
जिसे स्वप्न में भी छूना घृणित है.

यह सब एक पागलपन की तरह है.
और अँधेरा है कि अपनी उपस्थिति में
ब्लैक होल बनता जा रहा है मेरे लिए.

मैं इस अँधेरे में
उमर ख़य्याम के मोहभंग को ओढ़ लेना चाहती हूँ.
एक ग़ज़ल बन जाना चाहती हूँ !