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मोड़ और लड़की / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
अभी-अभी घर से निकली है लड़की
गेट के खुले पल्ले खुले ही हैं अभी तिरछे
माँ खड़ी है इसी आधे आदमी भर जगह में दोनों पल्ले थामे
कलाई की चूड़ियाँ कुहनी तक फिसल आयी हैं
देखती रहेगी लड़की को वह कस्बाई आँख से
मोड़ आने तक
मुड़ने के पहले लड़की भी देखेगी पीछे एक बार
यह सबसे बड़ा संवाद-पल है अभी
मुड़ते ही लड़की के, माँ भी लौट पड़ी है भीतर
चूड़ियाँ कलाई में लौट आयी हैं
माँ इस तरह जुट गयी है फिर से काम में
जैसे वह मोड़ आखि़री मोड़ था।