भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोरा मन तरसे / ब्रह्मदेव कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़ोॅ-बड़ोॅ आँखी सेॅ, टपकै जे लोर
हमरोॅ मन तरसै।
दीदी पढ़ै लेॅ, लिखै लेॅ, हमरोॅ मन तरसै
हमरोॅ जी तरसै।।
छोटहिं उमर से, मन के सपना लिखै लेॅ तरसै।
दीदी दिलोॅ के ऊ बात, लिखै लेॅ तरसै
हमरोॅ जी तरसै।।
पिया परदेश से, लिखी भेजलेॅ छै पाती, हृदय कचकै।
दीदी देखी-देखी पाती, मन बिलखै, नयन बरसै
हमरोॅ जी तरसै।।
केना केॅ पढ़ैबै दीदी, पाती लिखैबै, करेजा खटकै।
दीदी पिया के छै संदेश, करेजा खटकै
हमरोॅ जी तरसै।।
हम्हूँ पढ़बै-लिखबै दीदी, नुनुओं केॅ पढ़ैबै
घोॅर भरि तेॅ पढ़ैबेॅ करबै, गाँमोॅ केॅ पढ़ैबै
हमरोॅ मन हरसै।
दीदी जियै के अरथ पूरा होतै, सब सपना पूरतै
दीदी हमरोॅ प्राण बरसै, हमरोॅ जिया हरसै
हो नयन बरसै।।
दीदी पढ़ै लेॅ, लिखै लेॅ, हमरोॅ मन तरसै
हमरोॅ जी तरसै।।