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मोहन! यह मन मरो न मानत / स्वामी सनातनदेव

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मोहन! यह मन मरो न मानत।
तुम सो प्रीतम पाय प्रानधन! इत उत की वादहि क्यों तानत॥
होत न थिर पद पंकज में यह भटकि-भटकि अपनो रस भानत।
हाय-हाय उरझयौ तिनही में जिनहिं असत् दुखमय नित मानत॥1॥
आस-भास को प्यासो पामर आपुहि अपनी गह्वर<ref>गड्ढा</ref> खानत<ref>खोदता है</ref>।
जामें सुख को है न लेस हूँ ताही या जग में रस जानत॥2॥
बूझि-बूझि हूँ है अबूझ खल, पलहुँ न सूझ-बूझ उर आनत।
कहा-कहा दुर्गति नहिं भोगत, जो सपुनो सो अपुनो मानत॥3॥
पल-पल छीन होत यह तनु-तरु, ताकी छाया में रति ठानत।
जो है सदा-सदा ही अपनो ता प्रीतम को पतो न जानत॥4॥
कहा कहों, यह कुमति कुनारीसों भारी यारी-सी मानत।
याके फन्द फँस्यौ यह पामर अपनो साँचो सदन न जानत॥5॥

शब्दार्थ
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