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मोहन! राखु पद-रज-तरै / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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मोहन! राखु पद-रज-तरै।
सुर-सुरेन्द्र-बिधि-पद नहिं चहियै, डारहु मुकुति परै।
जग-सुख के सब साज सँभारहु, इनतें दुख न टरै॥
सुख-दुख, लाभ-हानि जगकी सम, नैकौ मन न जरै!
बिनु बिराम छबि-धाम निरखि, तन-मन नित प्रेम गरै॥