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मोहिं कछु हरि-रति की रति लागी / स्वामी सनातनदेव
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राग हंस ध्वनि, तीन ताल 7.7.1974
मोहिं कछु हरि-रति की रति लागी।
और बात अब लगत न नीकी, प्रीति ईति जिय जागी॥
ग्यान-मान विसर्यौ जबसों तबसों उर भौ अनुरागी।
विषय-विकार मार की बाधा आपुहि मनसों भागी॥1॥
उर उमँग्यो कारुन्य कृपानिधि की सरनागति माँगी।
चरन-सरन करि वरन प्रानधन की रति में मति पागी॥2॥
जहाँ स्याम की छाँह वहाँ किमि आवै काम अभागी।
करुना के जल-थल में कैसे लगै विषय की आगी॥3॥
पै निज बलसों मिलत न यह पद, पचि-पचि मरहिं अभागी।
करहिं अहैतुकि कृपा कृपानिधि तबहि जगत यह आगी॥4॥
जब सब त्यागि होय करि हीको, चहै न और सुहागी<ref>सौभाग्य</ref>।
तब ही करि-करुनासों यह रस पावत कोउ बड़भागी॥5॥
शब्दार्थ
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