भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोह / हरिऔध
Kavita Kosh से
और भी दाँत गड़ गये रस में।
क्या हुआ दाँत जो सभी टूटा।
ताकने की तनिक न ताब रही।
ताकना झाँकना नहीं छूटा।
अन्न हम दें सके न भूखों को।
दीन को दान के लिए न चुना।
है बड़ा दुख किसी दुखी का दुख।
कान देकर किसी समय न सुना।
चाहतें आज भी सताती हैं।
भेद पाया न झूठ औ सच का।
सन हुआ बाल तन हुआ दुबला।
गिर गये दाँत, गाल भी पचका।
गल गया तन, झूलने चमड़े लगे।
सामने हैं मौत के दिन भी खड़े।
पर न छूटी बान डँसने की अभी।
दाँत बिख के सब नहीं अब तक झड़े।
भाग ने धोखा दिया ही था हमें।
देव ने भी साथ मेरे की ठगी।
आज तक हम बन न अलबेले सके।
कंठ से अब तक न अलबेली लगी।