मौजिज़ा हज़रत अब्बास बिन अली करमुल्लाह वजह / नज़ीर अकबराबादी
जो मुहिब<ref>प्यार रखने वाले</ref> हैं ख़ान्दाने मुस्तफ़ा<ref>पवित्र, पुनीत हज़रत मुहम्मद साहब का खि़ताब</ref> के दोस्त दार<ref>हज़रत मुस्तफ़ा के घर से प्यार करने वाले</ref>।
और अलीए<ref>हज़रत अली</ref> मुर्तजा<ref>पसंद किए हुए, प्रिय अली</ref> पर जानो दिल से हैं निसार<ref>कुरबान</ref>।
सब सुनें दिलशाद<ref>खुश</ref> हो यह माजरा<ref>वारदात</ref> तफ़सील दार<ref>विस्तृत, विवरण सहित</ref>।
हैं जो अब्बासे अली<ref>हज़रत अली के पुत्र</ref> कर्रार<ref>शत्रु पर बराबर हमला करने वाले</ref> गाजी<ref>युद्ध में शत्रुओं का कत्ल करने वाले</ref> नाम दार।
उनका मैं एक मौजिजा लिखता हूं बा इज़्ज़ो विक़ार<ref>आदर सहित</ref>॥1॥
शहर है अरकाट इक वां एक साहूकार था।
जितने वां ज़रदार<ref>मालदार</ref> थे उन सब में वह सरदार था।
मालो ज़र का घर में इसके जा बजा<ref>जगह-जगह</ref> अंबार<ref>ढेर</ref> था।
उसके एक बेटा सआदतमंद<ref>नेक</ref> बरख़ुर्दार<ref>बेटा</ref> था।
गुल बदन<ref>फूल सा शरीर</ref> गुल पैरहन<ref>फूल से वस्त्र</ref> गुल रंग<ref>फूल सा रंग</ref> गुलरू<ref>फूल सा चेहरा</ref> गुल इज़ार<ref>फूल जैसे गालों वाला</ref>॥2॥
दूसरा उसके कोई बेटी न बेटा था मगर।
एक बेटा था वहीवाँ सरवरे<ref>सरदार</ref> रश्के क़मर<ref>चांद की प्रभा को मंद करने वाला</ref>॥
था पिन्हाता उसको पोशाक और जवाहर सरबसर<ref>बिल्कुल</ref>।
बस कि इकलौता जो था इस वास्ते उसके ऊपर॥
बाप भी जी से फ़िदा और मां भी दिल से थी निसार<ref>निछावर</ref>॥3॥
उन दिनों में था बरस तेरह का उसका सिन्नो साल<ref>वर्ष</ref>।
जब नज़र आया उसे माहे मुहर्रम<ref>मुहर्रम का महीना</ref> का हिलाल<ref>चांद</ref>।
ताज़िया ख़ानों<ref>ताज़ियों का मातम करने की जगह</ref> में जाता छुप के वह राना ग़िजाल<ref>सुन्दर हिरन के बच्चे जैसा</ref>।
मर्सियों<ref>शोकगीत</ref> में सुनके शाहे कर्बला<ref>हज़रत इमाम हुसैन</ref> के ग़म का हाल।
पीटता सीने को और मातम<ref>रोना धोना</ref> से रोता ज़ार-ज़ार॥4॥
ताजिये के सामने होके मोअद्दब<ref>बाअदब</ref> सर झुका।
मोरछल रो रो ज़रीहे पाक<ref>सुनहरा कब्र जैसा मोम का ताजिया</ref> पर झलता खड़ा।
जब अलम<ref>झण्डा</ref> उठते तो फिर लड़कों के साथ आंसू बहा।
या हुसैन इब्ने अली<ref>अली का बेटा</ref> कह कर अलम लेता उठा।
लोग देख उसकी मुहब्बत होते थे हैरान कार<ref>आश्चर्य चकित</ref>॥5॥
शाम से आकर वह क़न्दीले<ref>फानूस जिनमें चिराग जलाते हैं</ref> जलाता दमबदम।
कु़मकु़मे<ref>छोटे गोल बर्तन</ref> और झाड़ पर शमए<ref>मोमबत्ती</ref> चढ़ाता दम बदम।
औद सोजों<ref>खुशबूदार लकड़ी, सामग्री जलाने की जगह</ref> में अगर लाकर गिराता दम बदम।
अहले मजलिस<ref>मजलिस के लोग</ref> के तई शर्बत पिलाता दम बदम।
सब वह करता था ग़रज जितना था वां का कारोबार॥6॥
लेकिन उसके बाप को हर्गिज ख़बर अब तक न थी।
जब सुना उसने तो बेटे पर बहुत ताक़ीद<ref>नसीहत</ref> की।
झिड़का और मारे तमांचे खूब सी तम्बीह<ref>रोकथाम</ref> की।
और कहा ऐ बे हया बदबख़्त मूजी मुद्दई।
ज़ात से क्या तू निकालेगा मुझे ऐ नाबकार<ref>नालायक</ref>॥7॥
उसके दिल में तो शहीदे कर्बला<ref>कर्बला में शहीद किए गए इमाम हुसैन</ref> का जोश था।
ताज़िये पर ध्यान था और मर्सिये बर गोश<ref>शोक-गीत में ध्यान मग्न</ref> था।
बाप तो करता नसीहत और वह ख़ामोश था।
ने तमांचों का उसे ने झिड़कियों का होश था।
उठ गया था उसके दिल से साफ़ सबका नंगो आर<ref>शर्म</ref>॥8॥
बाप ने तो दिन में यह उस पर किया रंजो इताब<ref>क्रोध, गुस्सा</ref>।
रात को फिर ताज़िया ख़ानों में जा पहुंचा शिताब<ref>जल्द</ref>।
फिर पकड़ लाया उसे जाकर बसद हाले खराब।
अल ग़रज सौ सौ तरह इस पर किये रंजो इताब<ref>क्रोध, गुस्सा</ref>।
उसने जाना न छोड़ा उस मकां का जीनहार<ref>कदापि</ref>॥9॥
अपना बेगाना<ref>पराया</ref> उसे जाकर बहुत समझाता था।
पर किसी का कब कहा ख़ातिर में उसकी आता था।
रोना और मातम<ref>दुःख मनाना</ref> ही करना उसके दिल को भाता था।
ताज़िया खाने की जानिब<ref>तरफ</ref> यूँ वह दौड़ा जाता था।
जिस तरह आशिक़ किसी माशूक का हो बेक़रार॥10॥
जब तो सबने तंग हो यह मस्लहत<ref>भेद की बात</ref> ठानी बहम<ref>आपस में</ref>।
जिस से करता है यह मातम और उठाता है अलम।
क्यूं न अब इस दम वही हाथ इसका कर डोलो क़लम<ref>काट डालो</ref>।
कह के यह आखि़र को सबने, है क़यामत है सितम।
काट डाला हाथ जल्द उस बेगुनाह का एक बार॥11॥
अलग़रज़<ref>गर्ज यह कि</ref> कर हाथ उस मज़्लूम<ref>दुखिया</ref> का तन से जुदा।
कोठरी में बंद करके और कु़फ्ल<ref>ताला</ref> ऊपर जड़ा।
ने उसे खाना खिलाया ने उसे पानी दिया।
शाम तक भूका प्यासा कोठरी में था पड़ा।
देख अपने हाथ को रोता था धाड़ें मार-मार<ref>बिलख-बिलख कर</ref>॥12॥
वह अंधेरी कोठरी वह भूक पानी की प्यास।
हाथ से लोहू की बूंदे भी टपकतीं आस पास।
किस मुसीबत में पड़ा वह गुल बदन<ref>फूल जैसा शरीर</ref> जर्री लिबास<ref>जड़ाऊ कपड़े</ref>।
हाथ जख़्मी, खून जारी, दिल परेशां<ref>परेशान दिल</ref> जी उदास।
किस से मांगे दाद<ref>मदद</ref> और किसको पुकारे बार-बार॥13॥
वह तो अपनी बेकसी के दर्द में रोता था वां।
इसमें क्या है देखता उस कोठरी के दरमियाँ।
हो गया एकबारगी नूरे तजल्ली<ref>रोशनी</ref> का निशां।
इस तजल्ली में नज़र आया उसे एक नौ जवां।
कांधे के ऊपर अलम, पहलू में तेगे़ आबदार<ref>पानीदार</ref>॥14॥
दास्ताना<ref>दस्ताना</ref> हाथ में और पुश्त<ref>पीठ</ref> के ऊपर सिपर<ref>ढाल</ref>।
तन में एक सीमीं<ref>चांदी जैसा</ref> जिरह<ref>कवच</ref> और ख़ोद ज़र्री<ref>सुनहली शिरस्त्राण</ref> फ़र्क<ref>सिर</ref> पर।
दायें को तीरो कमां<ref>कमान</ref> बांये को शमशीरो<ref>तलवार</ref> तबर<ref>कुल्हाड़ा, फरसा</ref>।
जिस तरह अबरे सिया<ref>काले बादल</ref> में बंर्क़<ref>बिजली</ref> होवे जलवा गर।
इस तरह उस कोठरी में आ गया वह शह सवार॥15॥
उसने जब इस नौजवां के नूर की देखी झलक।
था मुजस्सिम<ref>साकार, मूर्तिमान</ref> वह तो हक़ का नूर सर से पाँव तक।
देखते ही इसका हैबत<ref>डर</ref> से गया सीना धड़क।
मुंद गई आंखें वहीं और खा गईं पलकें झपक।
हो गया बेहोश वह मजबूर जख़्मी दिलफ़िगार<ref>जख़्मी दिल</ref>॥16॥
ताब<ref>ताकत</ref> किसकी है जो उस चेहरे के आगे ताब लाये।
माह<ref>चांद</ref> क्या गर शम्स<ref>सूरज</ref> भी देखे तो अपना सर झुकाये।
ऐसे तालअ़<ref>भाग्य</ref> ऐसी क़िस्मत यह नसीबा कौन पाये।
ऐसा शहज़ादा मुक़द्दस<ref>पवित्र</ref> जिसके घर तशरीफ़ लाये।
आदमी क्या है फ़रिश्तों<ref>देवता</ref> का नहीं इज़्ज़ो विक़ार<ref>प्रतिष्ठा, इज़्ज़त</ref>॥17॥
वह तो नूरे तजल्ली<ref>तेज, आभा, प्रकाश</ref> देख बे खु़द था पड़ा।
इस इनायत इस करम का कुछ भी यारो इन्तिहा<ref>अन्त</ref>।
आप घोड़े से उतर के नूर चश्मे लाफ़ता<ref>अविजयी</ref>।
उस बरीदा<ref>कटे हुए, अलग हुए</ref> दस्त<ref>हाथ</ref> को उसके दिया तन से मिला।
और कहा उठ जल्द ऐ आले नबी<ref>नबी नसूल की औलाद या अनुयायी</ref> के पोस्तदार<ref>हज़रत मुहम्मद, नवी, की औलाद से प्यार करने वाले</ref>॥18॥
वह जो आंखें खोल कर देखे अजब अनवार<ref>रोशनी</ref> है।
रौशनी से जिनकी रौशन सब दरो दीवार है।
हाथ को देखा तो ख़ासा हाथ भी तैयार है।
ने तो उसमें दर्द है न खू़न का आसार<ref>चिह्न</ref> है।
रह गया एक बारगी<ref>एक बार तो</ref> हैरत में वह मज़लूम ज़ार<ref>जिस पर जु़ल्म किया गया हो</ref>॥19॥
फिर जो उस लड़के को उसमें होश सा कुछ आ गया।
हो तसद्दुक़<ref>न्यौछावर</ref> और वहीं पांव के ऊपर गिर पड़ा।
और कहां रो रो कि मेरा हाथ तन से था जुदा।
यह तुम्हीं से हो सका जो फिर दिया तन से मिला।
सच बताओ कौन हो तुम ऐ अमीरे नामदार<ref>नामवर, प्रसिद्ध</ref>॥20॥
बाप ने तो मेरे मुझ पर यह सितम बरपा<ref>कायम डाला</ref> किया।
हाथ काटा कैद की और सौ तअद्दी<ref>बेहद जुल्म</ref> ओ ज़फ़ा<ref>सितम</ref>।
मुझ से बेकस पर जो तुमने की यह कुछ लुत्फ़ो अता<ref>महरबानी</ref>।
अब ख़ुदा के वास्ते जल्दी से ऐ बहरे सख़ा<ref>दानी</ref>।
अपना कुछ नामो निशां मुझसे कहो तफ़सीलवार<ref>विवरण सहित</ref>॥21॥
जब कहा हज़रत ने हम भी आदमी हैं ऐ अज़ीज़।
बन्दऐ<ref>गुलाम</ref> दरगाहे<ref>किसी वली का मज़ार</ref> रब्बुलआलमी<ref>सारे संसार के मालिक अल्लाह की दरगाह का गुलाम</ref> हैं ऐ अज़ीज़।
ख़ाकसारो<ref>ख़ाक, धूल के समान गरीब</ref> आजिज़ो<ref>लाचार</ref> अन्दोहगी गीं<ref>गमगीं, दुखी</ref> हैं ऐ अज़ीज़।
जिनका तू करता है मातम वह हमीं हैं ऐ अज़ीज़।
आफरीं सद आफ़री<ref>शबाश, प्रशंसनीय</ref> ऐ पाक मोमिन<ref>ईमान वाले</ref> दीनदार॥22॥
यह हमारा है निशां ऐ पाक तीनत<ref>असली</ref> मुत्तक़ी<ref>संयमी</ref>।
नाम को पूछे तो हैगा नाम अब्बासे अली।
कर्बला के दश्त<ref>जंगल</ref> में दौलत शहादत<ref>खु़दा की राह में कत्ल हो जाना</ref> की मिली।
जो हमें चाहे हमारा भी उसे चाहे है जी।
जो हमारा ग़म करे हम भी हैं उसके ग़मगुसार<ref>दुख दूर करने वाले</ref>॥23॥
सुनते ही इस बात के एक बार वह लड़का ग़रीब।
हो गया शाद और वहीं सर रख के क़दमोंके क़रीब।
यूं लगा कहने बड़ी क़िस्मत बड़े मेरे नसीब।
मैं कहां आज़िज़ कहां अल्लाह के ख़ासे हबीब।
मैं तसद्दुक<ref>निछावर</ref> हूं तुम्हारा या शहे वाला तबार<ref>ऊंचे खानदान</ref>॥24॥
यह करम<ref>महरबानी</ref> यह लुत्फ़ यह बन्दा नवाजी<ref>गुलामों की हिम्मत बढ़ाना</ref> किस से हो।
मुझ से नालायक की ऐसी सरफ़राज़ी<ref>सर बुलन्दी</ref> किस से हो।
तुमने जो कुछ मुझ से की यह चारासाजी<ref>बीमारी का इलाज</ref> किस से हो।
यह हिमायत यह मदद या शाहे ग़ाज़ी<ref>काफिरों को कत्ल करने वाले बादशाह</ref> किस से हो।
इस इनायत इस करम का है तुम्हीं पर कारोबार॥25॥
मैं जो अपने हाथ से करता था मातम बरमिला<ref>फौरन</ref>।
और उठाता था अलम भी मैं तुम्हारे बजा।
हक़ अगर पूछो तो किसका हाथ है कट कर मिला।
यह तुम्हीं से हो सका जो फिर दिया तन से लगा।
वर्ना किस में थी भला यह कु़दरत और यह इक़्ितदार<ref>सत्ता, रौबदाब</ref>॥26॥
वह अभी राग़िब<ref>माइल, आकर्षित</ref> था अपने दर्द के इज़हार<ref>ज़ाहिर करना</ref> का।
क्या दिया तन से मिला हाथ अपने मातमदार का।
मोज़िज़ा<ref>चमत्कार</ref> देखो यह इब्ने हैदर<ref>हज़रत अली के पुत्र</ref> कर्रार<ref>शत्रु पर बराबर आक्रमण करने वाले</ref> का।
किस में यह कु़दरत बजुज़ फ़रज़ंद शेरे कर दिगार<ref>अल्लाहताला के शेर</ref>॥27॥
अब जो इसके हाथ पर कटने की आई थी गिरह।
कुछ हकीमों से न होता गर वह फिरता दह ब दह।
अब उन्होंने कर दिया एक आन में आते ही वह।
यह नहीं अब्बास का दस्ते यदुल्लाही<ref>खुदा का हाथ</ref> है यह॥
जुज यदुल्लाह<ref>खु़़दा के हाथ के अतिरिक्त</ref> हो भला किस दस्त से यह दस्तकार॥28॥
क्या हुसैन इब्ने<ref>हज़रत अली का बेटा</ref> अली ने जस लिया मैदान में।
और हैं अब्बास अली की बख़्शिशें हर आन में।
जिनके बेटों के रहें दिल ख़ल्क़ के ऐहसान में।
क्यूं न फिर ख़ालिक कहे उनके पिदर<ref>पिता</ref> की शान में।
ला फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ इल्ला जुल्फ़्क़िार<ref>अली के अलावा कोई फतह करने वाला नहीं है और जुल्फ़िकार, हज़रत अली की तलवार के अलावा कोई तलवार नहीं है।</ref>॥29॥
सुबह को उस कोठरी का खु़द बखु़द दर खुल गया।
बाप मां देखें तो उसका हाथ तन से है मिला।
पूछा यह क्या था, जो कुछ देखा था उसने सब कहा।
सुनते ही दोनों ने फिर तो सिदक<ref>सच्चाई</ref> से कल्मा पढ़ा।
हाथ में तस्बीह<ref>खुदा के नाम का जप करने की माला</ref> लीजु न्नार<ref>जनेऊ</ref> को डाला उतार॥30॥
फिर हुई उस मोजिजे़ की शहर की ख़ल्क़त में धूम-धूम।
हो गया उस तिफ़्ल<ref>बच्चा</ref> पर सब शहर का आकर हुजूम।
देखता था जो कोई लेता था उसके हाथ चूम।
और लगा आंखों से यूं कहता था हर दम झूम-झूम।
यह उन्हीं की दोस्ती के गुल ने दिखलाई बहार॥31॥
अलग़रज<ref>मतलब यह है</ref> मां बाप उस पर जानो दिल से हो फ़िदा।
लेके लड़के को चले दिल शाद<ref>खुश</ref> सूए<ref>तरफ</ref> कर्बला।
राह में करते थे लोग उनकी ज़ियारत का बजा।
जब वह मंज़िल पर उतरते थे तो वां के लोग आ।
दम बदम करते थे अपना सीमो ज़र<ref>चांदी सोना</ref> उस पर निसार॥32॥
कू बकू<ref>गली-गली</ref> शहरे नजफ़<ref>शहर का नाम जहां हज़रत अली का मज़ार है</ref> में भी यह शोरो गुल पड़े।
एक मुहिब्बे<ref>प्यार रखने वाला</ref> पाक दिल आया है हिन्दुस्तान से।
वां के भी लोग आये सब इसकी ज़ियारत के लिये।
और लाखों शख़्स आये दूर और नज़दीक के।
इस क़दर यह मोजिज़ा सब में हुआ वां आशकार<ref>प्रकट</ref>॥33॥
कर्बला के पास पहुंचा जिस घड़ी वह माहेताब<ref>चांद</ref>।
उन शरीफ़ों को हुआ हुक्मे शहे आली जनाब।
एक हमारा दोस्त आता है चला जूं मौजे आब।
करके इस्तक़बाल<ref>स्वागत</ref> तुम जाकर उसे लाओ शिताब।
उसकी लाज़िम है तुम्हें दिल दारी करनी बेशुमार॥34॥
कर्बला के लोग निकले उसके इस्तक़बाल को।
ले गये अस्पो<ref>घोड़ा</ref> शुतर<ref>ऊंट</ref> आराइशो अजलाल<ref>शानोशौकत</ref> को।
कर ज़ियारत चूम उसके दस्ते ख़ुश अफ़आल<ref>अच्छे काम करने वाले हाथ</ref> को।
सौ तजम्मुल से ग़रज उस साहिबे इक़बाल को।
शहर में लाये बसद<ref>सैकड़ों</ref> इकराम<ref>इज़्ज़त और फख्ऱ के काबिल</ref> और सद इफ़ित्ख़ार<ref>बुजुर्ग</ref>॥35॥
काम क्या क्या कुछ हुए उस से खु़दा की राह के।
फिर खु़दा ने भी उन्हें यह दस्त कु़दरत के दिये।
उसने कटवाया तो हाथ अब उनके मातम के लिये।
क्यूं न फिर तन से मिलाते वह तो मुंसिफ़ हैं बड़े।
सीख जावे उनसे नुसफ़त<ref>इंसाफ</ref> आके हर नुसफ़त शआर॥36॥
जब हुए रोजहे में दाखि़ल वह मुहिब्बाने अली<ref>हज़रत अली के चाहने वाले</ref>।
कर ज़ियारत और तसद्दुक होके दिल से हर घड़ी।
वां उन्होंने कुछ मकां बनवाने की तज़वीज की।
लड़का बनवाता फिरे था हाथ में लेकर छड़ी।
की इमारत आखि़रश रंगीं मुनक़्क़श<ref>चित्रित</ref> ज़र निगार<ref>सोने के काम से सजी हुई</ref>॥37॥
दीनी भी उसको मिला दुनिया भी यारो देखियो।
और मुहिब्बे पाक कहलाया टुक इसको देखियो।
क्या मुहब्बत के चमन की है यह ख़ुशबू देखियो।
क्या ही तालेअ<ref>भाग्य</ref> क्या ही किस्मत है मुहिब्बो<ref>मित्र, सखा, दोस्त</ref> देखियो।
उनकी उल्फ़त का निहाल<ref>पौधा</ref> आखिर यह लाया बर्गोबार<ref>फल-फूल, फूल-पत्ते</ref>॥38॥
या अली अब्बास ग़ाज़ी<ref>क़ाफ़िरों को क़त्ल करने वाले</ref> साहिबे ताजो सरीर<ref>बादशाही</ref>।
सबके तुम मुश्किल कुशा<ref>परेशानी को दूर करने वाला</ref> हो क्या ग़रीबो क्या अमीर।
जानो दिल से अब तुम्हारे नाम का होकर फ़क़ीर।
यह गुलामे स्याहरू<ref>गुनहगार</ref> अब जिसको कहते हैं ”नज़ीर“।
आपके फ़ज़्लो करम का यह भी है उम्मीदवार॥39॥