भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ / 'आसिम' वास्ती
Kavita Kosh से
मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ
आँखों में इक सराब है दरिया बना हुआ
इक और शख़्स भी है मेरे नाम का यहाँ
इक और शख़्स है मेरे जैसा बना हुआ
समझा रहे हो मुझ को मेरा इर्तिक़ा मगर
देखा नहीं है आदमी पहला बना हुआ
ऐ इंहिमाक-ए-चश्म ज़रा ये मुझे बता
चारों तरफ़ ज़मीन पे है क्या बना हुआ
करने लगा है तंज़ मेरे निस्फ़ अक्स पर
मुझ में जो एक शख़्स है पूरा बना हुआ
पहले किसी की आँख ने पागल किया मुझे
अब हूँ किसी नज़र का तमाशा बना हुआ
खुलती नहीं हैं तुझ पे ही उरयानियाँ तेरी
‘आसिम’ तेरा लिबास है अच्छा बना हुआ