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मौत पर हँसी आ गई / सुरेन्द्र स्निग्ध

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एक ख़बरिया चैनल स्वर्ग जाने का रास्ता दिखला रहा था

और दिखला रहा दूसरी ओर नरक की ओर जाने वाला लिफ़्ट ।

स्वर्ग और नरक की अवधारणा किसकी है — समझ ही रहे होंगे आप ।

फिर अगले ही क्षण शुरू कर दिया एक अश्लील गीत का टुकड़ा — जिसमें वक्ष उछाल रही थी एक आइटम गर्ल और स्क्रीन पर नीचे गुज़र रही थी तीन पट्टियाँ — ऊपर वाले में था विज्ञापन का टुकड़ा और बीच में आ रही थी ब्रेकिंग न्यूज । नीचे मौसम सम्बन्धी सूचनाएँ आ रही थीं । अचानक ब्रेकिंग न्यूज पर आ गई एक प्रसिद्ध पण्डित पत्रकार की मृत्यु की पंक्ति । दुखी हो गया मैं । कुछ ही देर में गाना का टुकड़ा समाप्त हुआ और आने लगा आपकी मृत्यु का विवरण — प्रख्यात पत्रकार की हृदयगति रुक गई क्रिकेट मैच देखने के दरम्यान । अचानक आ गई हँसी । मृत्यु पर हँसी — है न अजीब मनःस्थिति !

बेमतलब की मौत जब महोत्सव बन जाती है ।

हँसी आती है ।

एक ऐसी ही मौत थी वह ।

सचिन तेन्दुलकर की सेंचुरी के बावजूद
आख़िरी ओवर में हार गया था भारत । खेल में तो हार-जीत
होती ही रहती है । हार गया भारत ।

इस सदमें को बर्दाश्त नहीं कर सके पत्रकार महोदय —
पेस मेकर भी काम न कर सका — मर गए आप — और
हँसी आ गई मुझे ।

जिस देश में लाखों किसान कर रहे हों आत्महत्याएँ,
जिस देश में जल, जंगल, ज़मीन और जीवन बचाने ख़ातिर —
मारे जा रहे हों आदिवासी — बच्चे, बूढ़े या कि औरतें ।
 
इन्हें क़रार दिया जा रहा हो आतंकवादी — इनके पक्ष में बोलने पर
आप राष्ट्रद्रोही साबित कर दिए जा रहे हों । पूरे देश को गिरवी रखने वाले दलाल बन रहे हों देशभक्त । जहाँ जनतन्त्र बन गया हो पूंजीपतियों की रखैल — और क्या-क्या गिनाएँ पंडितजी — यह अन्धकार कितना सघन हो रहा है — और याद कीजिए मुक्तिबोध
— इस अन्धेरे में सारा षड़यन्त्र साफ़-साफ़ झलक रहा है । इन स्थितियों ने आपको ज़रा भी नहीं किया उद्विग्न !

आप तो जुगत भिड़ाते रहे — संसद के गलियारे में घुसने की ।
जहाँ आप नहीं घुसा सकते थे सींग — वहाँ आप घुसाते रहे दुम !

हँसी के पर्याप्त कारण थे पण्डितजी । आप तो बड़े पण्डित, ज्ञानी और
पक्के ब्राह्मण थे । इतने बड़े पण्डित और इतनी क्षुद्र मौत !