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मौन को स्वर में सजाकर आज हम कविता कहेंगे / आशुतोष द्विवेदी

मौन को स्वर में सजाकर आज हम कविता कहेंगे,
और तब साहित्य-शोधक उस विधा को क्या कहेंगे?

भ्रष्ट होते जा रहे दिन-रात नैतिक मूल्य सारे,
लोग इसको देश में बढ़ती हुई शिक्षा कहेंगे?

हम कहेंगे, चाहिए अब क्रांति आध्यात्मिक पटल पर,
किन्तु समझेंगे नहीं सब और हाँ में हाँ कहेंगे

स्मरण में उनके, हृदय पाषाणवत् होने लगा है,
वे छलकते नयन को सम्बन्ध की सीमा कहेंगे

स्वप्न टूटा, विवशता में धैर्य ने की आत्म-हत्या,
इस व्यथा को हम नियति की गूढ़ संरचना कहेंगे

जटिलता इतनी कि जीवन को न जीवन कह सकेंगे,
यदि कहेंगे कुछ इसे तो मृत्यु की सुविधा कहेंगे

जब कभी उस द्वार पर दो-चार पल ये पग रुकेंगे,
‘आशुतोष’, उसे कहीं भीतर छिपी श्रद्धा कहेंगे