मौन / प्रांजलि अवस्थी
सदियों पहले
मौन एक व्यथा थी
जो कसैले शब्दों को चबा कर
दर्द गटक जाती थी
उसका गला नीला स्याह था
हर निवाला जहाँ से उतरते हुये बहुत क्षुब्ध होता था
मौन को हर तिरस्कार की आदत हो चुकी थी
फिर सदियाँ बीतीं
शब्दों का रंग स्याह हो चुका था
उनकी गर्दनें झुकी हुईं थीं
पर फिर भी वह जानते थे कि
जुबान से धुले और कलम से उगे शब्दों को
रंग स्वतः मिल जाते हैं
पर मौन तब भी मौन ही था
उसके काँधे पर बोझ बढ़ता ही जाता था
पर वह चुप था
जब भी वह
कवियों की गोष्ठी के समीप से गुजरता
उसकी आँखें चमकनें लगतीं
पर जहाँ भी देखता
हर चौराहे, मंच और जमघट में उपहास
उस का ही था
हर तरफ़ शोर था, आवाजें थीं
शब्दों की आवाजाही थी
पर स्थिति, मौन की वही थी
उपस्थित पर नगण्य
फिर से सदियाँ बीतीं
अब लोग मौन को पहचानने लगे थे
अलग थलग सुकरात की दार्शनिक मुद्रा में खड़ा वह
जैसे फाँसी पर लटकने को हर समय तत्पर रहता था
लोग उसको सुनना चाहते थे पर अपने तरीके से
वो नहीं बोला
क्योंकि अब वह विद्रोह था मौन नहीं
और वह तब तक गूंगा ही बना रहा
जब तक उसकी व्यथा को कोई
मौन सहमति नहीं मिली