मौसम / राकेश खंडेलवाल
पल में तोला हुआ, पल में माशा हुआ
लम्हे लम्हे ये मौसम बदलता रहा
मेरी खिड़की के पल्ले से, बैठी, सटी
एक तन्हाई जोहा करी बाट को
चाँदनी ने थे भेजे सन्देशे, मगर
चाँद आया नहीं आज भी रात को
एक बासी थकन लेती अंगड़ाईयाँ
बैठे बैठे थकी, ऊब कर सो गई
सीढ़ियों में ही अटके सितारे रहे
छत पे पहुँचे नहीं और सुबह हो गई
अनमनी हो गई मन की हर भावना
रंग चेहरे का पल पल बदलता रहा
ले उबासी खड़ी भोर की रश्मियाँ
कसमसाते हुए, आँख मलती रहीं
कुछ अषाढ़ी घटाओं की पनिहारिनें
लड़खड़ा कर गगन में संभलती रही
हो के भयभीत, पुरबा, चपल दामिनी
के कड़े तेवरों से, कहीं छुप गई
राहजन हो तिमिर था खड़ा राह में
दीप की पूँजियाँ - हर शिखा लुट गई
और मन को मसोसे छुपा कक्ष में
एक सपना अधूरा सिसकता रहा
था छुपा नभ पे बिखरी हुई राख में
सूर्य ने अपना चेहरा दिखाया नहीं
तान वंशी की गर्जन बनी मेघ का
स्वर पपीहे का फिर गूँज पाया नहीं
बाँध नूपुर खड़े नृत्य को थे चरण
ताल बज न सकी रास के वास्ते
आँधियाँ यूँ चलीं धूल की हर तरफ
होके अवरुद्ध सब रह गये रास्ते
देख दहके पलाशों की रंगत चमक
गुलमोहर का सुमन भी दहकता रहा
एक पल के लिये ही लगा आई है
द्वार से ही गई लौट वापिस घटा
झाँकती ही रही आड़ चिलमन की ले
चौथी मन्ज़िल पे बैठी हुई थी हवा
धूप थाली में भर, ले गई दोपहर
और सन्ध्या गई रह उसे ताकती
पास कुछ भी न था शेष दिनमान के
वो अगर माँगती भी तो क्या माँगती
रात की छत पे डाले हुए था कमन्द
चोर सा चुप अन्धेरा उतरता रहा
बादलों के कफन ओढ़ कर चन्द्रमा
सो गया है निशा के बियावान में
ढूँढते ढूँढते हैं बहारें थकी
कलियाँ आईं नहीं किन्तु पहचान में
मानचित्रों में बरखा का पथ था नहीं
प्यास उगती रही रोज पनघट के घर
बुलबुलों के हुए गीत नीलाम सब
कैसी टेढ़ी पड़ी पतझड़ों की नजर
और जर्जर कलेंडर की शाखाओं से
सूखे पत्ते सा दिन एक झरता रहा