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म्हारा सपम्मपाट / हरीश बी० शर्मा
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लोग बाग पूछै है -
‘जबरो है तूं
कवितावां बणावै है
थारै मन में
इसी बातां कीकर आवै है।
ए सबद नूंवां-नूंवां
तूं कठै सूं लावै है,
अठै तो इसा विचार ही आवै कोनी।
म्हैं सोचूं-
बावळा
आ बात तो तूं जाणै
कै म्हैं कवितावां बणाऊ हूं
कुण किण नैं बणावै है
आ बात तो
म्हारो जीव जाणै है।