भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

म्हारी साख / मनोज पुरोहित ‘अनंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात तो
काल भी ही, आज भी है
काल भी रैसी
पण
बात नीं रैसी।
अंधारो होसी
काल भी, आज भी
चानणै री
रैसी उडीक
मिटसी कद।

दिन रात बिचाळै
भंवसी सबद
सबद बिलामाइजसी
अरथाइजसी
मिटसी दिन-रात
खूटसी अरथ, छूटसी बात
गम ई जासी सबद
कुण भर सी साख ?

म्है हूं
पण म्हारी भी
कुण भरसी साख ?