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यकीन / पवन चौहान
Kavita Kosh से
टूटेगा आडम्बरों का तिलिस्म कभी
मुझे यकीन है
अतीत के उजाले से महकेगा
मेरा भी ऑंगन
रात लंबी नहीं सफर की
उजाले की किरण है यहीं
अनजान डगर पर चलने वाला
पाता है अनुभव बहुत
कदमों का बोझ जब हो जाएगा भारी
बहुत भारी तो
मुसाफिर चाहेगा लौटना अपने घर ही
अपने साए के पास
पाश्चात्य रंग से दूर
जो खड़ा मुस्कुरा रहा है पहले-सा
अपने आगोश में लेने को तत्पर
लेकिन अभी वक्त है
विचारों का बिखराव जारी है
अपनों कंधों पर ढो रहा है वह
एक अनजान बोझ
एक मरी-सी संस्कृति का
अंजाम से बेखबर
लाद रहा है
अपने उसूलों, परंपराओं की मौत का सामान
इसी बोझ तले दबेगा वह
टूटेगा वह
मुझे यकीन है
लौटेगा वह
टूटेगा आडम्बरों का यह तिलिस्म कभी।