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यथार्थता / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
जीवन जीना —
दूभर - दुर्वह
भारी है!
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मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
गल - फाँसी है,
हर वक्त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अंधियारी है!
जीवन जीना —
लाचारी है!
बेहद भारी है!