यदि अंतरिक्ष रोटी होता / मुनीश्वरलाल चिन्तामणि
उस दिन कमरे की
अधखुली खिड़की से
वह भिखारी फिर दिख पड़ा
चिथड़ों में लिपटे,
मुख पर उदासीनता की
स्पष्ट रेखाओं को लिये
वह पथ पर आगे बढ़ रहा था
जिसके तन को छूने प्रात: की नहाई
क्वांरी हवा भी कतराती थी
वह क्षण भर रुका,
फिर एक चट्टान के सिंहासन पर जा बैठा
जैसे वह कोई महाराजा हो
न जाने क्यों कुछ क्षण बाद
वह नीचे भूमि पर बैठ गया
और अन्तरिक्ष की ओर
टकटकी बांधकर देखने लगा
कई मिनटों तक देखता रहा
तब अनायास मेरे मुँह से
ये शब्द निकल पड़े -
अरे पगले
आशा भरी दृष्टि से
अंतरिक्ष की ओर क्यों देखते हो ?
यह रोटी से
ज़्यादा स्वादिष्ट तो नहीं ?
क्या तुम इसे अपनी आँखों से
काट-काट कर अपना पेट भरोगे ?
यदि अंतरिक्ष रोटी होता
तो हम अंतरिक्ष – यान में
बैठ वहाँ पहुँचते
फिर उसे तोड़-तोड़ कर तुम निर्धनों की
फटी झोलियों में वहाँ से गिराते
वह भिखारी
निश्चेष्ट वहीं पड़ा रहा
आगे बढ़ने का साहस नहीं हो रहा था उसे
ऐसा लग रहा था कि पथ ने
पथिक की गति को
हज़ार डंक मार दिए थे ।