भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यदि दर्द न होता / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुनिया बे-पहचानी ही रह जाती
यदि दर्द न होता मेरे जीवन में

मैं देख रहा हूँ काफ़ी अरसे से
दुनिया के रंग-बिरंगे आँगन को
जिसमें हर एक ढूँढ़ता फिरता है
केवल अपने-अपने मनभावन को

लेकिन मैं देख न पाता ख़ुद को भी
यदि विश्व न हँसता मेरे क्रन्दन में

मन को निर्मल रखने के लालच में
जो कुछ कहना पड़ता है, कहता हूँ
पीड़ा को गीत बनाने के ख़ातिर
जो कुछ सहना पड़ता है, सहता हूँ

मेरी पीड़ा अनजानी ही रहती
यदि अश्रु न जन्मे होते लोचन में

मुझको भय लगता है उन लोगों से
जो मौसम की ही भाँति बदलते हैं
प्यारे लगते हैं लेकिन वे इनसान
जो हर मुश्किल के लिए सँभलते हैं

नफ़रत है केवल उन इनसानों से
जो शूल बने बैठे हैं मधुवन में

सुख की शीतल छाया को पाकर भी
मैं दुख की जलती धूप नहीं भूला
चन्दा की उजली चान्दनियाँ पाकर
काली रातों का रूप नहीं भूला

मैं रातों को भी दिन-सा चमकाता
यदि मेरी आयु न होती बन्धन में ।