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यदि निश्चय करो तो / प्रताप नारायण सिंह

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इस तिमिर के पार
उज्ज्वल रवि-सदन है
रश्मियों का नृत्य
अतिशय मनोरम है
अनिल उष्मित है प्रवाहित चहुँ दिशा में
दृष्टि , पथ, उर में भरेगी दिव्य आभा
प्रज्वलित कर एक दीपक
तुम चलो तो

इस मरुस्थल पार है
उपवन मनोहर
अम्बु शीतल से भरा
अनुपम सरोवर
तरु , लता, बहु भाँति के सुरभित सुमन हैं
तृप्त होगी प्यास; छाया, सुरभि होगी
पत्र ही बस एक सिर पर
धर चलो तो

इस नदी के पार है
विस्तृत किनारा
फिर नहीं कोई भँवर
न तीक्ष्ण धारा
भय नहीं कोई, न ही शंका कुशंका
जीर्णता मन की मिटेगी, शांति होगी
एक बस पतवार
संग लेकर चलो तो

ईश के तुम श्रेष्ठतम कृति
हीनता क्यों?
पल रही मन में
सघन उद्विग्नता क्यों?
हो रहा क्यों आज इतना दग्ध मन है?
घिर रहा है क्यों हृदय में अति गहन तम?
क्यों निराशा खोलती
अपने परों को?

सैकड़ों मार्तण्ड का है
तेज तुम में
वायु से भी है अधिक
बल, वेग तुम में
अग्नि से भी तप्त, उर्जा से भरे तुम
यह धरा, आकाश सब होगा तुम्हारा
उठ खड़े हो,
प्राण से निश्चय करो तो !