भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यदि मैं भी चिड़िया बन पाता / कुंजबिहारी चौबे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यदि मैं भी चिड़िया बन पाता!

तब फिर क्या था रोज़ मजे़ से,
मैं मनमानी मौज उड़ाता!

नित्य शहर मैं नए देखता,
आसमान की सैर लगाता!

वायुयान की सी तेजी से
कई कोस आगे बढ़ जाता!
रोज़ बगीचों में जा-जाकर
मैं मीठे-मीठे फल खाता!

इस डाली से उस डाली पर
उड़-उड़ करके मन बहलाता!

सूर्योदय से पहले जगकर
चें-चें करके तुम्हें जगाता!

सदा आलसी लोगों को मैं
चंचलता का पाठ पढ़ाता!