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यदि वहाँ हिमालय में कुपित होकर वेग से / कालिदास

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ये संरम्‍भोत्‍पतनरभसा: स्‍वाड़्गभड्गाय तस्मि-
     न्‍मुक्‍ताध्‍वानं सपदि शरभा लड्घयेयुर्भवन्‍तम्।
तान्‍कुर्वीथास्‍तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णान्
     के वा न स्‍यु: परिभवपदं निष्‍फलारम्‍भयत्‍ना।।

यदि वहाँ हिमालय में कुपित होकर वेग से
उछलते हुए शरथ मृग, उनके मार्ग से अलग
विचरनेवाले तुम्‍हारी ओर, सपाटे से कूदकर
अपना अंग-भंग करने पर उतारू हों, तो
तुम भी तड़ातड़ ओले बरसाकर उन्‍हें दल
देना। व्‍यर्थ के कामों में हाथ डालनेवाला
कौन ऐसा है जो नीचा नहीं देखता?