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यहाँ का नीला आकाश / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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यहाँ नीला है आकाश, नीले आकाश में खिले हैं सहजन के फूल
खिले हैं-हिम धवल-अश्विन के प्रकाश की तरह उनका रंग,
आकन्द फूल का काला भौंरा करता है यहाँ गुंजन
धूप की दोपहरी को भरता है-बार-बार धूप उसके सुचिक्कण रोम
कटहल और जामुन की छाती पर लोटता है-चंचल अंगुली से उसे थामे
हल्का-हल्का फिरता है यहाँ जामुन, लीची, कटहल के वन में
धनपति, श्रीमन्त; बेहुला, छलना के छूता है चरण(सती बेहुला कथा के पात्र)
मधुर राह में समाई है कौवे और कोयल के देह की धूल।

कब की कोयल जानते हो? जब मुकुन्दराम(उपरिवत) हाय-
लिखने बैठे थे दूसरे पहर एकाग्र चित्त से ‘चण्डी मंगल’
तो कोयल की कूद से रुक-रुक जाता था लिखना
और जब बेहुला अकेली चली गंगा की धार तैरकर
संध्या के अँधेरे में धान खेत और अमराई के झुरमुट से
कोयल की पुकार सुन-सुनकर उसकी आँख में छा गई थी धुंध।