यहाँ की सुबह / नरेश अग्रवाल
चारों तरफ पहाड़ हैं और बीच में झील का हिलना
सूरज उग रहा है इसमें से
उठ रहा है धीरे-धीरे उस किनारे की ओर से
थोड़ी देर में बीचों – बीच
इसके साथ-साथ ही
शुरू हो जाती है यहाँ के लोगों की सुबह
नाविकों ने अपनी नाव खोल ली है
मवेशी चराने वाले निकल पडे़ हैं भेड़ों को लिये टीलों पर
घोड़ा तैयार है सवारी के लिए
और नाश्ते का अंतिम कौर मेज पर
सभी को लगभग दूर-दूर तक चलना होता है
वे देखते हैं अपने चुस्त जूतों की तरफ
और इस महल का शानदार स्वरूप
देखते-देखते पूरी तरह से प्रतिबिम्बित हो गया है जल में।
आस-पास के बाग-बगीचे भी छोड़ने लगे हैं धरती का जल
अपने गोल-गोल फव्वारों से।
फूल से लदी डालियों को तलाश है
किसी सुन्दर चेहरे की
और अधिक रफ्तार की जरूरत नहीं
सब कुछ धीरे-धीरे चलता है यहाँ
हम जितने गति शून्य हों उतने ही इनमें डूबे हुए
कब धूप और कब छाया कुछ भी पता नहीं चलता
सूरज फिर से लौट आया है झील में
अपनी सुबह की मुद्रा में
शांत झील में दिखाई देता है
उसका डूबता हुआ मस्तक
और चारों तरफ से पक्षियों का पेड़ पर लौटना
अब जहाँ भी कदम बढायें अंधकार पर ही पड़ते हैं ।