भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यही नहीं / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
लता लिपटे
हरसिंगार के नीचे बैठें
आँखों आँखों लहरें...
लहरायें
तलहीन गहराइयों में पैठें
पैठते चले जायें;
पर
जब भी कोई
डूबना-डुबाना चाहे,
दृष्टियाँ खींच लें,
शब्द की रज्जु पकड़ लें
ऊपर उतरायें
होठों-होठों दुहरायें
नहीं....नहीं....नहीं
यह नहीं।