यही है वह दिन / केदारनाथ अग्रवाल
घोंसलों से उड़ आए
रोमांचित खुले मैदान में
कबूतरों के जोड़े
झुंड के झुंड अब जहाँ करते हैं गुटरगूँ
पंख से पंख सटाए हुए पूरे
एक दूसरे पर हो रहे निछावर
खुश है
परम प्रकाशित धूप
दिल और देह को दिगंत तक खोले-
ब्याह गए सूरज और धरती के मिलाप से
लद गए खड़े पेड़ों के बसंती वशीकरण फूलों से
दूधिया दर्पण में
सर्वांग रंगीन और अनझिप
मुग्ध है अनंत आकाश का नीलांबरी सुदर्शन पुरुष
चूम-चूमकर
प्रकृति के रंगीन रस भरे अंगों की प्रसन्न पंखुरियाँ
खुल गए
द्वार-पर-द्वार
सौन्दर्य के इस पार-उस पार
संस्पर्श की हिलोरे मारती
संवेदनशील हवा से
यही है वह दिन
जिसके इंतजार में जीता रहा हूँ मैं
भीतर से भभकते
और बाहर से स्थिर प्रशांत
और अब, आज,
जिसे पा लिया है मैंने
मानवीय अस्तित्व के मधुरिम-बोध में
मर्त्यलोक में चिरंजीवी रहने के लिए
हर्षोल्लास के साथ
रचनाकाल: १२-०४-१९७१