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यह इंसान बनने का समय है / सीमा संगसार
Kavita Kosh से
अपनी पुतलियों को फैलाकर
सिकोड़ लेती है
बजबजाती भूख से
अतृप्त इच्छाओं को...
खैरात में मिले उन टुकड़ों को
चबा–चबा कर खाती हैं
ताकि देर तलक
बजती रहे
चपर चपर की आवाज़
और / उसकी गंध को भारती रहे वह
अपनी नथुनों में!
जब इंसान चुक जाता है
अपनी संप्रेषणीयता बनाने में
पशु की आँखें बोल पड़ती है...
यह इंसान की आखिरी अवस्था है
जब इंसानियत
पशुता की भेंट चढ़ जाती है
और / पशु इन्सान बनने लगता है!
यह इंसान का / पशुता की शक्ल में
इंसान बनने का समय है...