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यह इस मौसम की आख़िरी धूप है / कर्णसिंह चौहान

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यह इस मौसम की आख़िरी धूप है
आओ
इसके स्वागत में आरती उतारें
सूरज से आँखें मिलाएँ
दबी घास सा यह तन
पीला हो गया है ।

लबादों में ढके-ढके
मुरझा गया शरीर
लटक गया मन
उमंग उल्लास जीवन
उतारो इन्हें
पोर-पोर रोशनी में धुल जाए
कल्पना आकाश में घुल जाए
फूटें नई कोंपल
हो सिहरन हलचल
यह दिन है सूर्य स्नान करें।

पूरब जो लाली का धाम है
वहीं है सागर
स्वर्णिम रेत का अनंत विस्तार
चलो चलें
इस आभा में गलें
ऊर्जस्वित हो अंतर
नीलिमा उतरे आंखों में
पावनता भर जाए साँसों में ।

तरंगों के पार वहीं कहीं है जार्जिया
अपने से जूझता
सोवियत देश
कुछ मांगो इस सागर से
अच्छा और सुन्दर ।

वक़्त बहुत कम है
खिल सके तो खिले गुलाब
वह अनार
और काली झरबेरी
अंगड़ाई ले सके तो ले पहाड़
देखो यह घाटी कबकी प्यासी है ।

वक़्त बहुत कम है
सात दिन का सूरज
परियों के देश जा रमेगा
फिर अंधेरी होंगी रात
उदास होंगे दिन
बर्फ़ के ढूहों में दबे
कितने अकेले होगें हम ।

जो भी करना है जल्दी करो
जितना भरना है जल्दी भरो
यह इस मौसम की आख़िरी धूप है ।