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यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
पहले इतने बुरे नहीं थे तुम
याने इससे अधिक सही थे तुम
किन्तु सभी कुछ तुम्ही करोगे इस इच्छाने
अथवा और किसी इच्छाने , आसपास के लोगोंने
या रूस-चीन के चक्कर-टक्कर संयोगोंने
तुम्हें देश की प्रतिभाओंसे दूर कर दिया
तुम्हें बड़ी बातोंका ज्यादा मोह हो गया
छोटी बातों से सम्पर्क खो गया
धुनक-पींज कर , कात-बीन कर
अपनी चादर खुद न बनाई
बल्कि दूरसे कर्जे लेकर मंगाई
और नतीजा चचा-भतीजा दोनों के कल्पनातीत है
यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है ।
- १९५९ में लिखी यह कविता , विश्व बैंक से पहली बार कर्जा लेने की बात उसी समय शुरु हुई थी ।