यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला,
ढहा और तन टूट चुका है
पर जिसका माथा न झुका है,
नीली नसें खिंची हैं कैसी
मानचित्र में नदियाँ जैसी,
शिथिल त्वचा,ढल-ढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाए विजय पताका
यह कवि है अपनी जनता का !
स्वर्ण रेख-सी उसकी रचना,
काल-निकष पर अमर अर्चना !
एक भाग्य की और पराजय,
एक और हिंदी जन की जय,
परदुखकातर कवि की भाषा,
यह अपने भविष्य की आशा-
'माँ अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से वारो !'
भारत के इस रामराज्य पर,
हे कवि तुम साक्षात व्यंग्य-शर !