यह कैसा निर्माण? / रामगोपाल 'रुद्र'
यह कैसा निर्माण तुम्हारा?
जिस आधार शिला पर धरकर
आत्मा की पूजा के पत्थर
तुमने यह प्रसाद बनाया
देख कला जिसकी, शरमायी असुरों और सुरों की माया;
ढाह रहा है आज उसी को अग्निगर्भ अभिमान तुम्हारा!
श्रम के रजशेखर सिर दलकर
स्वेदशुद्ध शोणित से पलकर
तुमने चाही थी मांसलता;
चाही थी अपनी अबाधगति, संसृति में सब ओर कुशलता;
मुड़कर लेकिन आज तुम्हीं को बेध रहा है बाण तुम्हारा!
तुमने जड़ता को पनपाया,
फैलाई यन्त्रों की माया,
रौंदी नेहमयी मजदूरी;
प्राणों से अनजान बना दी आत्मा के मंदिर की दूरी;
बिहँस रहा है आज व्यंग्य बन तुम पर ही विज्ञान तुम्हारा!
बहुत हुई, अब तो तुम जागो,
मुग्ध स्वप्न की तन्द्रा त्यागो;
जागो, जाग उठे भू-संस्कृति;
जगें दीप्त दृग-दल दिग्-दिग् में, भर जाए उछाह की झंकृति!
मानव, कब से तड़प रहा है बन्धन में निर्वाण तुम्हारा!