भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह कैसा निर्माण? / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह कैसा निर्माण तुम्हारा?

जिस आधार शिला पर धरकर
आत्मा की पूजा के पत्थर
तुमने यह प्रसाद बनाया
देख कला जिसकी, शरमायी असुरों और सुरों की माया;
ढाह रहा है आज उसी को अग्निगर्भ अभिमान तुम्हारा!

श्रम के रजशेखर सिर दलकर
स्वेदशुद्ध शोणित से पलकर
तुमने चाही थी मांसलता;
चाही थी अपनी अबाधगति, संसृति में सब ओर कुशलता;
मुड़कर लेकिन आज तुम्हीं को बेध रहा है बाण तुम्हारा!

तुमने जड़ता को पनपाया,
फैलाई यन्‍त्रों की माया,
रौंदी नेहमयी मजदूरी;
प्राणों से अनजान बना दी आत्मा के मंदिर की दूरी;
बिहँस रहा है आज व्यंग्य बन तुम पर ही विज्ञान तुम्हारा!

बहुत हुई, अब तो तुम जागो,
मुग्ध स्वप्न की तन्‍द्रा त्यागो;
जागो, जाग उठे भू-संस्कृति;
जगें दीप्त दृग-दल दिग्-दिग् में, भर जाए उछाह की झंकृति!
मानव, कब से तड़प रहा है बन्‍धन में निर्वाण तुम्हारा!