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यह चाँद जिधर से आता है / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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यह चाँद जिधर से आता है-
उस ओर कहीं पर अंगूरी रस का सागर लहराता है,
यह चाँद जिधर से आता है-

चलता सब कुछ उस अवनी में,
मृदु-मृदु, हौले-हौले, धीमे,
छाया-वन में ज्यों तितली-दल रेशम के पट फहराता है!
यह चाँद जिधर से आता है-

छमछम करती हैं अप्सरियाँ
मंजीर बजातीं, किन्नरियाँ;
गातीं नवला हिम-कन्याएँ, शशि हीरक-चूर उड़ाता है!
यह चाँद जिधर से आता है-

झरते बन उनके श्रम-सीकर;
कलियों में मधु, हिमकण केसर,

चम्पकवर्णी उनकी काया,
नीलम की आभा-सी छाया;
कुन्तल में भादों की निशि का अँधियारा नहीं समाता है!
यह चाँद जिधर से आता है-

जो मदिरा वहाँ ढुलकती है-
ऊषा बन यहाँ छलकती है!
प्राणों में जिसको संचित कर, कवि गाता रस बरसाता है!
यह चाँद जिधर से आता है-

जो पात वहाँ पर झड़ते हैं-
सपने वन यहाँ उतरते हैं!
यह मेरा रूप-चितेरा मन, जिनसे छवि-चित्र बनाता है!

यह चाँद जिधर से आता है-
उस ओर कहीं पर अंगूरी रस का सागर लहराता है!