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यह जो मीनार / विजय सिंह नाहटा

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यह जो मीनार
क्षितिज की ऊंचाई तक जाती है
टंका है जिस कंगूरे पर
इस बदहवास दौड़ते शहर का नाम
तमाम वर्णमाला से बाहर लटकता सा
इसकी नींव की गहराई में सोये हैं गुमशुदा कामगार
उनकी जलती आह का अंतहीन उत्ताप
खंडित सपनों के अदृश्य पथराये भ्रूण
ताउम्र लङखङाते, टूटे हुए आदमी की
अनाम जद्दोजहद का मलबा
इस ठहरी दुपहर भुजाओं में थामे
मूक वैभव का विशाल गट्ठर
शहर जिसे ढोए फिरता
रात की नीरव छाया घाटी में।