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यह तनु है कागज की पुडिया, कब तक इसे बचाना है / स्वामी सनातनदेव

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ध्वनि गजल, कहरवा 28.7.1974

यह तनु है कागज की पुड़िया, कब तक इसे बनाना है।
एक दिना गल-सड़कर इस को मिट्टी में मिल जाना है॥1॥
क्यों कहता ‘मैं-मेरा’ इस को, यह घर सदा बिराना है।
कुछ दिन को है मिला बसेरा, फिर इस को तज जाना है॥2॥
इसे मान कर अपना रे! तू अपना रूप भुलाना है।
छाया की माया में फँस काया को स्वयं न जाना है॥3॥
तू तो है अविनाशी, तेरा अन्त न वेद बखाना है।
नाशवान की ममता में फँस निज पद अमर भुलाना है॥4॥
तेरा सपना है सब दुनिया, सपने को सत माना है।
अपने को पहचानेगा तो सपना कहीं न पाना है॥5॥
अपने से हो जाय विमुख तो अपना ही रह जाना है।
अपने में अपना प्रीतम है, सपना वही समाना है॥6॥
अपने अरु सपने को तजकर जो भी फिर रह जाना है।
वही-वही है अपना प्रीतम, अपना ठीक ठिकाना है॥7॥