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यह देह-छुवन की रात, सखी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
कैसी अद्भुत
महकी-महकी
यह देह-छुवन की रात, सखी
कनखी का जादू
अँधियारे में जोत जली
बाहर-होती रिमझिम-रिमझिम
लग रही भली
धीमे-धीमे
साँसों में भी
होती रस की बरसात, सखी
हाँ, मेंह-राग मीठा-मीठा
बज रहा उधर
इक बिना देह का देव
जग रहा है भीतर
सबसे मीठी
होठों-होठों में
हुई अभी जो बात, सखी
उँगली-उँगली कोंपल का
औचक छू जाना
लगता जन्मों-जन्मों का
जाना-पहचाना
खिल गया देह में
लगता जैसे
पहला-पहला पात, सखी
हमने देखा है अभी-अभी
होता अचरज
तुम चाँद हुईं
हम हुए अचानक ही सूरज
तुम हँसीं
हो गईं साँस-साँस
है नया-उगा जलजात, सखी