भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह नहीं राहें मुहब्बत का चलन / नज़ीर बनारसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर तमन्ना सर-बज़ानू <ref>चिन्तित</ref> है अभी
हर ऩजर मसरूफ़े-तजईने-चमन <ref>वाटिका को सजाने में मग्न</ref>

हर रविश अपनी महुब्बत के रविश
क़ासिदे-अम्नो-अमाँ <ref>शान्तिदूत</ref> अपना चलन

जो भी चाहे आके सूरत देख ले
आईना है अपना आईने <ref>विधान</ref> चमन

हर नज़र यूँ पाक <ref>पवित्र</ref> होना चाहिए
जिस तरह से सबुबह की पहली किरन

आप अब क्यों मायले-तख़रीब <ref>तोड़-फोड़ में लगे हुए</ref> हैं
हम हेैं जब मसरूफ़-तामीरे-चमन <ref>वाटिका अर्थात् देश-निर्माण में व्यस्त</ref>

हम ज़बाँ देकर न बदलेंगे कभी
ज़िन्दगी चाहे वदल दे पैरहन <ref>चोला</ref>

चल रहे हैं आप जिस अन्दाज़ से
यह नहीं राहे मुहब्बत का चलन

है ज़बाँ पर ज़िक्रे पैमाने वफ़ा
और सारी हरकतें पैमाँ-शिकन <ref>प्रतिज्ञा तोड़ने वाली</ref>

याँ फ़रिश्ता <ref>देवदूत</ref> भी इजाज़त लेके आये
यह है मेरा अपना फ़िरदौसे <ref>स्वर्ग</ref> वतन

फिर जहन्न्ाम <ref>नरक</ref> से न बच सकिएगा आप
आँच भी आई अगर सूए-चमन <ref>मेरे चमन अर्थात् भारत की सीमा को</ref>

अम्ने-आलम <ref>विश्वशान्ति</ref> की हिफ़ाजत के लिए
बॉँध सकते है अभी सर से क़फ़न

अब अगर ख़तरे में आया बाँकपन
हर शिकन माथे की होगी सफ़-शिकन <ref>सेना की मार्चेबन्दी तोड़ने वाली</ref>

शब्दार्थ
<references/>