भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह नहीं होगा मरूँ मैं / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
यह नहीं होगा मरूँ मैं,
पर अकेला क्या करूँ मैं !
छुट गये साथी सफर के
कल तलक जो साथ में थे,
ज्यों अंधेरे में हजारों
सूर्य मेरे हाथ में थे;
मुस्कुराता भी अगर था
गूंजती थीं सब दिशाएँ,
अब समय विपरीत है तो
हो गयीं वैरी हवाएँ ।
फिर न मुझको पीर घेरे,
किस जगह पर जा धरूँ मैं !
क्या कहूँ मैं इस समय को
जो न जीवन ही, मृत्यु ही,
क्या इसे कह कर पुकारूँ
रुद्र भी न, जो न वसु ही;
गीत मेरे गा उठो तुम,
प्राण मेरे गुनगुनाओ !
नागकेसर के वयस हों,
दिन कुसुम के लौट आओ !
गीत, जब तुम साथ मेरे
किसलिए ऐसे डरूँ मैं ।