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यह भरा दिन भी / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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आह !
यह भरा दिन भी
घुल गया तनावों में !
बुझे हुए रिश्तों को, आँसू से नहलाना ।
सिर-विहीन गुड़िया से, उखड़ा मन बहलाना ।।
पिस गया हरापन भी
अनकहे दबावों में !

क़हक़हों, ठहाकों के, बाद का अकेलापन ।
भीड़, समारोहों के, बीच में उगा निर्जन !
छीन गया अपनापन
टूटते लगावों में

रोज़ का यही किस्सा घर से बाहर जाना ।
सड़कों से एक नया, हादसा उठा लाना ।
छूटते ज़रूरी सन्दर्भ,
रख-रखावों में !

सांत्वना, भरोसा या गहरी आत्मीयता ।
शब्दों का खेल सिर्फ़ हमदर्दी लापता ।
खो गया सहज बचपन
रेशमी भुलावों में !