राग नारायणी, झूमरा
यह मन भयो विषय को चेरो।
करि-करि जतन हार ही मानी, फिरत नाहिं यह मेरो फेरो॥
तुम ही कों मान्यौ निज सरबस, तुम ही में नित चहों बसेरो।
फिर काहे यह जात इतै-उत, वृथा आप ही करत बखेरो॥1॥
तुम सो दियो, लियो तुम हूँ, फिर काहे तुम इत करहु न डेरो।
जो तुम याहि न अपनावहुगे बनि है वृथा विषय को खेरो॥2॥
अपनी वस्तु लेहु मनमोहन! करहु आपु ही नित्य बसेरो।
जो यह मन हो भवन तिहारो तो फिर रहै न कोउ बखेरो॥3॥