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यह मन मानत कह्यौ न मेरो / स्वामी सनातनदेव

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राग मारवा, तीन ताल 18.9.1974

यह मन मानत कह्यौ न मेरो
अपनी ही तानत मनमोहन! करत बहुत उरझेरी॥
पुनि-पुनि दौरि जात विषयन में, फिरत न मेरो फेरो।
स्वारथ ही की बात विचारत, दिन-दिन करत बखेरो॥1॥
मैं तो हारि गयो अब माधव! तकूँ तिहारो खेरो।
तुम बिनु और न कोउ आसरो, स्याम कृपा करि हेरो॥2॥
सदा-सदासों रह्यौ तिहारो, हौं घर जायो चेरो।
तुम बिनु त्रिभुवन में मनमोहन! और भला को मेरो॥3॥
अपनो करि अपनावहु प्यारे! देहु चरन में डेरो।
सदा तिहारे पद-पंकज को भ्रमर रहे मन मेरो॥4॥
गुनि-गुनि गुनगन रसहि निरन्तर रुचिसों रति रस तेरो।
यहीं यहीं बस, रहे रैन-दिन याको स्याम बसेरो॥5॥