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यह मानव,मानव रह पाता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मिल जाती प्राणों की लहरी
मिट जाती जगती की ज्वाला,
उगती कोंपल बाँझ डाल पर
गाता फागुन रोज़ उजाला।
कितना अच्छा होता मानव
केवल मानव ही रह पाता॥

अधरों से काँटो को छूकर
कालकूट पृथ्वी का खींचा
पलकों पर तैराकर मोती
तपते हुए रेत को सींचा
वैर, भाव निर्वासित होता
अगर अभाव कहीं भर जाता॥

किरणें जगकर जहां भोर की
लेना चाह रही अँगड़ाई
 वहीं निगलने को आतुर हो
बैठी है अन्धी परछाई
कब सार्थक उपवन होता यदि
फूल महकने से डर जाता॥

सदाचार की अर्थी ढोकर
चौराहे पर है ला पटकी है
उजले-उजले पर हैं जिनके
नज़र कफन पर उनकी अटकी।
घाव खड्ग का भर जाए पर
नासूर शब्द का न मिट पाता॥

पाण्डव बनने की धुन किसको
कौरव बनना जहाँ सरल है
अमृतपान की प्यास सभी को
पीना रुचिकर किसे गरल है।
देह बन बैठे सभी देवता
कोई तो शंकर बन जाता॥
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