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यह मेरे प्रिय का मंडप है / ठाकुरप्रसाद सिंह

यह मेरे प्रिय का मंडप है

इसको मत होने दो सूना


चाहे मन कितना हो सूना

उठता हो भीतर से रोना

पर झांझों, मादल, वंशी के

स्वर पर हमें निछावर होना


जय हो यहाँ रसिक की जय हो

मंडप प्रिय का शोभामय हो

मेरे भाग दिये की बाती

मुझको केवल जलते जाना


यह मेरे प्रिय का मंडप है