यह शहर किसका है ? / सुमन पोखरेल
प्रवासन के लिए आए
सुन्दर कञ्चन गावँ इकट्टा हो कर 
प्रलयकारी बाढ सा शहर बना हुआ देख रहा था ।
पलबढ रहे मकान और फटते हुए फैल रहे रास्तो के बीच 
पावँ रखने में खोफ जगानेवाला समय पे 
धूलधुसरित सडक पे खेल रहा खुद को ढुँड रहा था मैँ ।
होश सम्हालने के वक्त से
लगातार चल रहा अपना ही सडक की पेटी पे
खोया हुआ  मुझे
जीवन की मध्यान्ह मेँ आकर
आकृतिविहीन किसी ने काँपते हुए पकडा 
और पूछा
यह शहर किसका है ?
दूर पनघट से उठ आए हुए इन्द्रधनुषों को
मध्यरात्री की कृत्रिम रोशनी पे खोया हुआ देख रहा हूँ ।
क्षितिज से प्रेम का गीत गाते हुए उड आए चिडियों को 
वहम की धून पे नाच रहा, देख रहा हूँ ।
देख रहा हूँ 
शितलता से मुझे छु कर ढुका हुआ हवा
मध्य शहर में आग लगा कर मुझे धक्के लगाते हुए लौट गया ।
जीवन बाँटते हुए चल रहा पानी
शहर मे घुस के जीवन की बाग को मसल कर निकल गया 
बाहर मिलने पे सचमुच का इन्सान सा दिखनेवाले इन्सान ने भी
शहर मे एक अमानुष को बेच डाला और 
खुद उसी में समाहित हो गया । 
एक पल तो ऐसा लगता है, कि
निरन्तर से गुंज रही गालीयों की आँधी मे सामिल हो जाऊँ
दायित्ववोध को खोल कर नंगा हो जाऊँ और
इसी शहर के पानी से बना हुआ खून का जोश
इसी के हवा से टिका हुवा श्वास का आवेग
इसी की सिखाई हुई बोली का कम्पन
निकाल कर चिल्लाऊँ - 
यस शहर भीड के गुंगे नारों पे नाचनेवालों का है
इन्सान को छुपानेवाली लेप में सुन्दरता देखनेवालों का है 
संवेदनहीनता को आदर्श बनाकर ऊँघनेवालो का है 
सपनो में जी कर जागर्ती में मरते रहनेवालों का है
चलते चलते खुद को भूल जानेवालों का है
पागलों का है । 
यह शहर
जीवन का संङ्गीत ले के बुरांस की डाली से उडा हुवा मोनाल को 
मन्दिर की गजुर पे चढाकर कौवा बनानेवालों का है । 
ईश्वर को बृद्धाश्रम मे छोड घर लौटकर 
टेलिविजन पर ढुँडनेवालों का है 
इन्सान के बच्चे को गटरों में फेँक के
कुत्ते को दूध चूसानेवालों का है । 
इस की कुरूपता का वेदना से भीँचा हुवा मन ले के
जीवन का आधी थाली समय को चुन के देखने पे, लेकिन
मै,
खुद को और इस शहर को एक ही दृष्टीपटल में देख रहा हूँ । 
यह शहर मेरे उद्वेगों को
अपने वितृष्णाओं के साथ पी कर खुस रहा है, 
मेरे अपूर्ण इच्छाओं को खेला खेलाकर पलाबढा है, 
मेरी प्रेमकहानी के सुन्दर सपने को ओढकर सोया हुआ है 
मेरा विद्रोह का जुलुस देख के जगा हुआ  है ।
मैने इस शहर के धूल और धूवों को 
घर तक ले आकर
अपने चेहरे और कपडे से साथ धोया है, 
इस के कर्कश आवाजों को उठा ले आकर 
चुन चुन के अपने गीतों में पीरोया है
इस के विक्षिप्त दृष्यों को समेट के अपनी कविताओँ को सजाया है, 
इसी की आह को पीरो के जीवन की धून को बुना है । 
इस के तमाम गुणदोष का जिम्मा लेकर 
मैं कहता हूँ, 
यस शहर मेरा है । 
	
	