अँधेरे बन्द कमरे के पार देखता हूँ
कवि हूँ तो बन्द कमरे के अँधेरे के पार देखता हूँ
अँधेरे के पार भी अँधेरा है
जैसे सब्ज़ी-बाज़ार
अँधेरे के पार भी अँधेरा है
जैसे रंडी-बाज़ार
अँधेरे के पार भी अँधेरा है
जैसे कसाईख़ाना
यह सब क्या देखता हूँ मैं
क्या हुआ है मुझे?
क्यों पथरा नहीं जाती हैं आँखें मेरी
यह सब देखने से पहले?