भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह समय मेरी क्या बात सुनेगा / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह समय अभी क्या बात मेरी सुनेगा
रुक कर पथ में ही या यथापूर्व आगे
प्रतिपल बढ़ता ही जाएगा और पीछे
फिर कर न तकेगा बात जैसी रही है ।

युग पिछड़ गए हैं, आज कोई कहानी
सुन कर दुहराना भी नहीं चाहता है
पग पग चल आए पैर पृथ्वी अभी है
यदि ठहर गए तो बात की बात क्या है ।

घिर-घिर घन आए, व्योम ने गान गाया,
फिर फिर नव वर्ष्जा नृत्य अपना दिखा के
जल बन कर छाई, भूमि ने रंग पाए
खिल खिल कर पौधे भेंट जैसे खड़े हैं ।

शश उछल रहे हैं घास के बीच जैसे
घन धवल कहीं हों व्योम की नीलिमा में
तृण हरित समेटे ताल ध्यानस्थ से हैं
ध्वनि उमड़ रही है वायु में सारसों की ।

रँग रँग उठता है छोर कोई दिशा का
उठ उठ कर पौधे धान के ताकते हैं
सुरभि लहर लेती व्योम को बासती है
रस बस कर मेरी बात भी खेलती है ।