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यह हमारा घर, वह तुम्हारा घर / कमलकांत सक्सेना
Kavita Kosh से
यह हमारा घर, वह तुम्हारा घर।
इस तरह बांटा गया सारा शहर।
नित नये उपचार, खोजें भी नयी
चढ़ गया बीमार को आपात् ज्वर।
कुर्सियों ने भूख को बंदी किया
प्यास को किसने दिया मीठा जहर?
क्यों भला मजबूर इतना हर नगर
मत नहीं, अभिमत नहीं देते अधर?
आ गया मनमानियों का दौर अब
जल रहा है कायदा आठों पहर।
वह हमारे देवता का ग्रंथ है
खा रही हैं दीमकें जिसका कव्हर।
आ गया है वक्त में तूफान सा
डोलती-सी दीखती हैं हर उमर।
अब नया इतिहास लिखना चाहिये
साहसी सूरज लिये मन की लहर।
छोड़ देंगी चिमनियाँ भी चीखना
खेत की सौंधी हवा पी लें अगर।