याज्ञसेनी-3 / राजेश्वर वशिष्ठ
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !
वैभव सिराहने से लगा कर
रात भर सोई नहीं हूँ
चन्द्रमा की रोशनी में
स्मरण करना चाहती हूँ
उन पलों को
जो छिपे होंगे कहीं
मेरा अघोषित भूत बन कर
आश्चर्य है,
शैशवविहीना, मैं हुई हूँ क्यों !
महल की प्राचीर के नीचे
उषा की लालिमा में
भूख से व्याकुल
रो रही है एक कन्या
बहुत छोटी, बहुत नाजुक;
माँ स्नेह से व्याकुल लपकती है
हृदय से बाँध लेने को
अपलक देखती है द्रौपदी
इस स्नेहबंधन को
मधुर वात्सल्य का रस है !
चहकते पक्षियों से
ताल पूरा भर गया है
वे पथिक हैं, दूर उड़ कर जा रहे हैं
प्रशस्ति में वरुण की
कूकते हैं वे ऋचाएँ
और बादल-राग में
मल्हार किंचित गा रहे हैं
मोगरे के फूल-सा महका,
खिला मन है
हवा भी कसमसाती है,
द्रौपदी इस भोर में
कुछ गुनगुनाती है !
पुष्प कितने ही खिले हैं
महल के उद्यान में
इन्द्रधनु ज्यों आ गया है
मलय के संज्ञान में
एक बाला चाहती है
पकड़ लेना तितलियों को
दौड़ती है, खिलखिलाती है
बहुत निश्छल ;
धक्क से होता हृदय है द्रौपदी का,
हे प्रभो ! कहाँ है बालपन मेरा ?
क्या उदासी
और कुछ सन्ताप ही मेरे लिए है
कौन समझेगा असम्भव भावनाएँ
जो इस समय
मेरे हृदय को मथ रही हैं !
मनुष्य का यह जन्म कैसा
यदि अवस्थाएँ सभी
तुम जी नहीं पाए
व्यर्थ है धिक्कार है यौवन तुम्हारा
स्नेह माता का
अगर तुम ले नहीं पाए
मेरी कहानी
इस दुख का सन्तृप्त दर्शन है !
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !