Last modified on 5 जनवरी 2018, at 20:56

यातना शिविर से बच निकली / एलीसिया पार्तनॉय / यादवेन्द्र

मैं अपना गुस्सा
साथ लेकर चलती हूँ
गठरी-सा सीने से चिपकाए।

वह एक
मरी हुई मछली की तरह
लुँज-पुँज है
और बदबू बिखेरता रहता है।

कभी-कभार उससे
फुसफुसाकर
बातें भी कर लेती हूँ।

राह चलते लोग
मुझे देख
दूर छिटक जाते हैं
मुझे मालूम नहीं —
मौत की दुर्गन्ध के चलते
वे मुझसे दूर भाग खड़े होते हैं
या कि
मेरे बदन की गर्मजोशी से डरते हैं…

कहीं मेरा गुस्सा
एक बार फिर से
सोए पड़े जीवन को
सुलगा न दे !

अँग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेन्द्र